Source The Indian Express
आने वाली फिल्म ‘हक़’ ने एक बार फिर उस ऐतिहासिक कानूनी मामले की याद दिला दी है जिसने भारत में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर व्यापक बहस छेड़ दी थी — शाह बानो केस। यह मामला 1985 में सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले से जुड़ा है, जिसने मुस्लिम महिलाओं को तलाक के बाद भरण-पोषण (maintenance) का अधिकार दिया था।
क्या था शाह बानो केस:
मध्य प्रदेश के इंदौर की शाह बानो बेगम ने अपने पति मोहम्मद अहमद खान से 1978 में तलाक के बाद गुज़ारे-भत्ते की मांग की थी। उनके पति ने तलाक के बाद भरण-पोषण देने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद मामला अदालत तक पहुंचा।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि धारा 125 CrPC के तहत किसी भी धर्म की महिला को भरण-पोषण का अधिकार है, और इस कानून का धर्म से कोई संबंध नहीं है। इस निर्णय ने मुस्लिम महिलाओं के लिए न्याय का नया रास्ता खोला था।
राजनीतिक विवाद और कानून में बदलाव:
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कई धार्मिक संगठनों ने विरोध जताया। राजनीतिक दबाव के चलते उस समय की राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया, जिससे सुप्रीम कोर्ट का फैसला प्रभावहीन हो गया।
इस अधिनियम के बाद फिर से यह बहस छिड़ी कि क्या भारत में धर्म के आधार पर महिलाओं के अधिकार अलग-अलग होने चाहिए।
फिल्म ‘हक़’ की पृष्ठभूमि:
फिल्म ‘हक़’ इसी सामाजिक और कानूनी संघर्ष की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसमें एक मुस्लिम महिला की कहानी दिखाई गई है जो समाज और कानून के बीच अपनी पहचान और अधिकारों के लिए संघर्ष करती है। निर्देशक के अनुसार, फिल्म का उद्देश्य यह दिखाना है कि आज भी कई महिलाओं के लिए ‘हक़’ सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक लंबी लड़ाई है।
निष्कर्ष:
शाह बानो केस और अब फिल्म ‘हक़’ दोनों ही यह सवाल उठाते हैं — क्या धर्म और व्यक्तिगत कानून के नाम पर महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों से समझौता किया जा सकता है? यह बहस आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी चार दशक पहले थी।
