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केंद्र के प्रस्तावित संशोधन और मंत्रियों को पद से हटाना: इस पर SC ने पहले क्या कहा?

Source Indian Express

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने हाल ही में एक नया विधेयक पेश किया है, जिसका उद्देश्य गंभीर आपराधिक मामलों में 30 दिनों से अधिक समय तक हिरासत में रहने वाले मंत्रियों को उनके पद से हटाना है। इस प्रस्तावित कदम ने एक बड़ी बहस छेड़ दी है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों की ओर ध्यान खींचा जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले

2014 का मामला (मनोज नरूला बनाम भारत संघ): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले किसी व्यक्ति को मंत्री नियुक्त करने पर कोई कानूनी रोक नहीं है। हालांकि, कोर्ट ने यह भी सलाह दी थी कि प्रधानमंत्री को ऐसे व्यक्तियों को मंत्रिपरिषद में शामिल करने से बचना चाहिए, खासकर अगर उन पर गंभीर आरोप तय किए गए हों। कोर्ट ने इस मुद्दे को नैतिकता और संवैधानिक विश्वास का विषय बताया था, न कि कानूनी बाध्यता का।

2013 का लिली थॉमस मामला: इस महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) को असंवैधानिक घोषित कर दिया था। इस धारा के तहत, किसी भी सांसद या विधायक को दोषी ठहराए जाने के बाद भी अपील के लिए तीन महीने का समय मिलता था, जिसमें उनकी सदस्यता रद्द नहीं होती थी। कोर्ट ने कहा कि दोषसिद्धि होते ही सांसद या विधायक की सदस्यता तुरंत समाप्त हो जाएगी। यह फैसला राजनीति में अपराधीकरण को रोकने की दिशा में एक बड़ा कदम था, लेकिन यह मंत्रियों को सीधे पद से हटाने से संबंधित नहीं था, बल्कि यह उनके विधायक/सांसद के रूप में उनकी योग्यता से संबंधित था।

केंद्र का प्रस्तावित संशोधन

केंद्र सरकार का नया विधेयक इन फैसलों से आगे बढ़कर एक स्पष्ट कानूनी प्रावधान पेश करता है। यह विधेयक संविधान के अनुच्छेद 75, 164 और 239AA में संशोधन का प्रस्ताव करता है। इसके तहत, यदि कोई केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, या राज्य का कोई मंत्री गंभीर अपराध में 30 दिनों से अधिक समय तक हिरासत में रहता है, तो उसे पद से हटा दिया जाएगा। यह कदम दोषसिद्धि की प्रतीक्षा किए बिना ही उठाया जाएगा।

विपक्ष और विशेषज्ञों की राय

विपक्ष ने इस विधेयक को “अलोकतांत्रिक” और “तानाशाही” करार दिया है। उनका मानना है कि इसका दुरुपयोग राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए किया जा सकता है। कुछ कानूनी विशेषज्ञों का भी कहना है कि यह विधेयक ‘दोष साबित होने तक निर्दोष’ के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जो भारतीय न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

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